मंगलवार, 22 जुलाई 2014

मित्रों , इस बार की ग़ज़ल कुछ लीक से हटकर .....आशा है पसंद आयेगी |

कभी सागर हमारा है,...... कभी कतरा नहीं होता
सुनहरे ख़्वाब का हर सिलसिला सच्चा नहीं होता

जुबां ख़ामोश थी लेकिन ....वो चेहरे बदगुमां से थे
मगर वो पढ़ गए थे हम कि जो लिक्खा नहीं होता

कहीं शोहरत में रुसवाई, कहीं महफ़िल में तनहाई
कि अक्सर वो ही क्यों होता है जो सोचा नहीं होता

नशा कोई भी हो,, कुछ देर हो...... तो क्या बुराई है
हमेशा होश में रहना भी तो........ अच्छा नहीं होता

पुरानी धुल खाती... कुछ किताबों.... में मिलूँगा मैं
नए लोगों की महफ़िल में..... मेरा चर्चा नहीं होता |

............तो फिर मित्रों ..कैसी लगी ये नए तेवर की ग़ज़ल....??

***शंकर करगेती***