सोमवार, 9 मई 2011

यूँ तो गज़लें प्यार की उनको सुनाई थी बहुत .............

नाव कागज की कभी,, हमने बनाई थी बहुत
सागरों के पानियों में,, फिर डुबाई थी बहुत ..

वो नहीं समझे अगर,, इसमें हमारी क्या खता
यूँ तो गज़लें प्यार की उनको सुनाई थी बहुत

फिर वही सागर वही साहिल है जिसके दरमियां
हमने तुमने प्यार की,, कसमें उठाई थी बहुत...

साथ थे जब तो तुम्हीं से हमको कुछ गज़लें मिली
बस वही तन्हाइयों में,,, गुनगुनाई थी बहुत ......

आज उनको है ये शिकवा वो मोहब्बत क्या हुई
जो की तुमने बेवजह,, पहले जताई थी बहुत


क्या पता इस बात पर क्यों चलते चलते रुक गयी
उन कलमकारों ने यूँ,, कलमें चलाई थी बहुत ....





गुरुवार, 5 मई 2011

दूधमुहों को जूठे बर्तन धोते देखा है...............

हमने सूरज को भी दिन में सोते देखा है
और पूनम के चाँद को नयन भिगोते देखा है

सिसक रही है हंसी रोककर आंसू अब अपने
आँख बचा कर मुस्कानों को रोते देखा है

जिनकी किस्मत में बस रातें ही रातें होती
उनको नए नए सपने संजोते देखा है

शैतानों की झोली में ही क्यों खुशियां सारी
दूधमुहों को जूठे बर्तन धोते देखा है

राजनीति के ग्रह कुछ ऐसे बैठे है यारो
अनहोनी को हमने अक्सर होते देखा है 

सोमवार, 2 मई 2011

तुमने मुस्काकर हवाओं से न जाने क्या कहा............

आईने को देखकर मैं किस कदर डरता रहा.
मेरा चेहरा था मुझे ही अजनबी लगता रहा.

तुमने मुस्काकर हवाओं से न जाने क्या कहा,
बेवजह तूफ़ान मुझ से रात  भर  लड़ता रहा.

था महल मेरे लिए मिटटी का ये कच्चा मकां,
कौन मेरे नाम पर इस ताज को लिखता रहा.

चाँद की मजबूरियाँ थी या की साज़िश रात की,
बादलों की ओट में क्यों चाँद क्यों छिपता रहा.

बेवफा होते ही हैं ये ख्वाब सबको है यकीं ,,
फिर भी इनके वास्ते हर शख्स क्यों मरता रहा.