आईने को देखकर मैं किस कदर डरता रहा.
मेरा चेहरा था मुझे ही अजनबी लगता रहा.
तुमने मुस्काकर हवाओं से न जाने क्या कहा,
बेवजह तूफ़ान मुझ से रात भर लड़ता रहा.
था महल मेरे लिए मिटटी का ये कच्चा मकां,
कौन मेरे नाम पर इस ताज को लिखता रहा.
चाँद की मजबूरियाँ थी या की साज़िश रात की,
बादलों की ओट में क्यों चाँद क्यों छिपता रहा.
बेवफा होते ही हैं ये ख्वाब सबको है यकीं ,,
फिर भी इनके वास्ते हर शख्स क्यों मरता रहा.
मेरा चेहरा था मुझे ही अजनबी लगता रहा.
तुमने मुस्काकर हवाओं से न जाने क्या कहा,
बेवजह तूफ़ान मुझ से रात भर लड़ता रहा.
था महल मेरे लिए मिटटी का ये कच्चा मकां,
कौन मेरे नाम पर इस ताज को लिखता रहा.
चाँद की मजबूरियाँ थी या की साज़िश रात की,
बादलों की ओट में क्यों चाँद क्यों छिपता रहा.
बेवफा होते ही हैं ये ख्वाब सबको है यकीं ,,
फिर भी इनके वास्ते हर शख्स क्यों मरता रहा.
nice one.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर ग़ज़ल है | पर कुछ शेरों में या तो यहाँ लिखने में गड़बड़ी हो गयी है या मै उनकी गहराई समझ नहीं पाया | मसलन
जवाब देंहटाएं"था महल मेरे लिए मिटटी का ये कच्चा मकां,
कौन मेरे नाम पर इस ताज को लिखता रहा."
पर दूसरा शेर मुझे इस ग़ज़ल की जान लगा |
"तुमने मुस्काकर हवाओं से न जाने क्या कहा,
बेवजह तूफ़ान मुझ से रात भर लड़ता रहा."
"मेरे लिए तो मेरा मिट्टी का कच्चा घर ही जैसे महल था,न जाने किसने मेरे नाम पर ताज महल लिख डाला".....शायद अब स्पष्ट हो गया हो ......प्रशंन्सा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद नवीन जी ...!!
जवाब देंहटाएं