गुरुवार, 5 मई 2011

दूधमुहों को जूठे बर्तन धोते देखा है...............

हमने सूरज को भी दिन में सोते देखा है
और पूनम के चाँद को नयन भिगोते देखा है

सिसक रही है हंसी रोककर आंसू अब अपने
आँख बचा कर मुस्कानों को रोते देखा है

जिनकी किस्मत में बस रातें ही रातें होती
उनको नए नए सपने संजोते देखा है

शैतानों की झोली में ही क्यों खुशियां सारी
दूधमुहों को जूठे बर्तन धोते देखा है

राजनीति के ग्रह कुछ ऐसे बैठे है यारो
अनहोनी को हमने अक्सर होते देखा है 

2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह शंकर जी वाह, जवाब नहीं आपका...
    वैसे तो उसका कहना वो कुछ नहीं कहता है,
    हमने तो उनको, कहने को बेचैन रहते देखा है...

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  2. विनय जी, अब आपकी सुंदर ,कोमल और मन मोहक प्रतिक्रिया के बिना मेरी कोई भी रचना सफल नहीं कहलाई जा सकती, आपकी उपस्थिति एक शीतल मंद पवन की तरह है, ताज़ा हवा के एक झोंके की तरह है......बहुत बहुत धन्यवाद .....
    शंकर करगेती

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