गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

जाने कौन नज़र आता है अपनी ही परछाई में........

भीड़ में हरदम मुस्कायेंगे,,,, रोयेंगे तनहाई में,
हम शोहरत के मोती,, ढूँढेंगे अपनी रुसवाई में|

खौफ नहीं होता है कुछ भी धरती से जुड़ जाने पर
लेकिन अक्सर डर लगता है,, पर्वत सी ऊंचाई में

यूँ तो अक्सर चुप रहता है कभी कभी मुस्काता है
जाने क्या क्या अर्थ छुपे हैं,, सागर की गहराई में

कभी सुबह मुसका जाती है कभी शाम शरमा जाती
धडकन धडकन खिल उठती है मौसम की अंगडाई में

एक उम्र से मैं उसको,,,, पहचान नहीं पाया लेकिन
जाने कौन नज़र आता है,,, अपनी ही परछाई में..!

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